13 साल की मुस्कान डॉक्टर बनना चाहती हैं. उनका ये सपना हर रोज़ नदी की लहरों से होकर गुज़रता है.
बिहार में मुज़फ़्फ़रपुर के छोटे से गांव मधुबन प्रताप की रहने वालीं मुस्कान छठी क्लास में पढ़ती हैं.
स्कूल पहुंचने के लिए उन्हें एक लंबा रास्ता तय करना पड़ता है.
वे कहती हैं, "नाव पर बैठते हैं तो बहुत डर लगता है. नाव हिलती है तो ऐसा लगता है कि मैं गिर जाऊंगी. मुझे कुछ नहीं चाहिए, बस पुल बनवा दीजिए, बहुत डर लगता है."
मुस्कान के ये शब्द सिर्फ़ उसकी तकलीफ़ नहीं, बल्कि बिहार के लाखों छात्रों की सच्चाई है, जहां पढ़ाई के लिए आज भी रोज़ाना जद्दोजहद करनी पड़ती है.
मौजूदा वित्त वर्ष (2025-26) के बजट में बिहार सरकार ने शिक्षा के लिए सबसे ज़्यादा यानी 21.7 प्रतिशत (करीब 61 हज़ार करोड़ रुपए) का प्रावधान किया है.
लेकिन क्या इतने बड़े निवेश से ज़मीनी हालात बदल पाए हैं? क्या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता बेहतर हुई है?
क्या सरकारी स्कूलों के इंफ्रास्ट्रक्चर, शिक्षकों की उपलब्धता और नतीजों में वाकई सुधार हो रहा है, या फिर आंकड़ों और घोषणाओं के पीछे अब भी वही पुरानी चुनौतियां छिपी हैं.
स्कूलों को शिफ्ट करने का आदेशबच्चों को सुरक्षित और बेहतर माहौल देने के लिए साल 2019 में बिहार सरकार ने एक फ़ैसला लिया.
खुले आसमान और जर्जर इमारतों में चल रहे स्कूलों को नज़दीक के ऐसे स्कूलों में शिफ्ट करने को कहा गया, जहां कमरे, शौचालय, पीने के पानी और मिड डे मील की व्यवस्था हो.
ऐसा ना करने पर ज़िला स्तर के पदाधिकारियों के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई करने की चेतावनी भी दी गई.
यह इसलिए भी किया गया क्योंकि लगातार मीडिया में बिहार के अलग अलग ज़िलों से खुले आसमान, सामुदायिक भवनों और जर्जर इमारतों में चल रहे स्कूलों की ख़बरें आ रही थीं.
इस फ़ैसले के बाद पटना से करीब 30 किलोमीटर सैदपुर गांव के एक प्राइमरी स्कूल को करीब के गांव रसलपुर के हाई स्कूल में ट्रांसफर कर दिया गया.
सैदपुर की टोला सेविका राखी देवी बताती हैं, "जून 2019 में स्कूल का एक कमरा गिर गया था, जिसके बाद हमारे स्कूल को रसलपुर ट्रांसफर कर दिया."
लेकिन इस ट्रांसफर ने प्राथमिक विद्यालय के बच्चों की ज़िंदगी को और मुश्किल में डाल दिया, क्योंकि अब स्कूल गांव से करीब दो किलोमीटर दूर हो गया.
'शिक्षा का अधिकार' कानून के मुताबिक प्राथमिक स्कूल बच्चों के घर से एक किलोमीटर की दूरी के अंदर होना चाहिए.
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पांचवीं क्लास में पढ़ने वाली शबनम को अब यह लंबी दूर तय कर स्कूल जाना पड़ता है. वे कहती हैं, "रास्ते में धूप लगती है. एक लड़का बेहोश भी हो गया था. इतनी दूर पैदल जाने की वजह से स्कूल जाने का मन नहीं करता."
सैदपुर के रहने वाले डॉ अरुण कुमार कहते हैं, "लोकसभा चुनाव में गांव के लोगों ने तय किया था कि जब तक गांव में ही स्कूल का निर्माण नहीं हो जाएगा, तब तक वे वोट नहीं करेंगे और लोगों ने वोट भी नहीं किया था. बावजूद इसके यहां स्कूल नहीं बन पाया."
बच्चों को हो रही दिक्कतों के सवाल पर फतुहा प्रखंड के शिक्षा पदाधिकारी सुजीत कुमार कहते हैं, "सैदपुर में स्कूल बनाने की कोशिशें जारी हैं. बच्चों की पढ़ाई बाधित ना हो, इसलिए स्कूल को शिफ्ट किया गया है."
वे कहते हैं, "दूरी की वजह से थोड़ा असर ज़रूर पड़ता है, लेकिन टोला सेविका की मदद से हम प्रयास करते हैं कि बच्चे स्कूलों तक आएं."
स्कूलों को शिफ्ट करने के सवाल पर पटना कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल नवल किशोर चौधरी कहते हैं कि ऐसे ज्यादातर मामलों में अब बच्चों को स्कूल के लिए ज्यादा दूरी तय करनी पड़ रही है.
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उनका कहना है, "इस तरह के फ़ैसलों को गंभीरता से लेने की जरूरत है. आंख मूंदकर स्कूल ट्रांसफर करने से काम नहीं चलेगा."
स्कूल ट्रांसफर से होने वाली परेशानियों और इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे सवालों को लेकर बीबीसी ने राज्य के शिक्षा मंत्री सुनील कुमार, शिक्षा सचिव अजय यादव और दिनेश कुमार से जवाब लेने की कोशिश की, लेकिन उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.
वहीं, बिहार एजुकेशन प्रोजेक्ट काउंसिल के निदेशक मयंक वरवड़े ने बीबीसी को बताया कि फंड की कमी की वजह से कुछ कामों में देरी हो रही है, लेकिन जल्द ही इन समस्याओं का समाधान कर दिया जाएगा
स्कूल मर्जर का फ़ैसला
नई शिक्षा नीति 2020 में एक स्कूल कॉम्पलेक्स पॉलिसी लाई गई. इसके तहत उन प्राथमिक स्कूलों को हाई स्कूलों में मर्ज कर दिया गया, जहां बच्चों की संख्या 50 से कम थी.
अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी इस पॉलिसी के तहत सैंकड़ो स्कूलों को दूसरे स्कूलों में मर्ज किया गया.
यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इनफार्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू-डीआईएसई) भारत की स्कूली शिक्षा से जुड़ा एक बड़ा डेटा कलेक्शन और मैनेजमेंट सिस्टम है.
इसके मुताबिक साल 2023-24 में बिहार में 78 हजार 120 स्कूल थे, जो एक साल बाद घटकर 76 हजार 320 रह गए.
ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट के अस्सिटेंट प्रोफेसर विद्यार्थी विकास कहते हैं, "एक साल के अंदर बिहार में 1800 स्कूल कम हो गए. या तो इन स्कूलों को मर्ज कर दिया गया है या फिर इन्हें बंद कर दिया गया है."
वे कहते हैं, "एवरेज एक सरकारी स्कूल में 250 से 300 बच्चे पढ़ते हैं. ऐसे में राज्य के करीब पांच लाख बच्चे शिक्षा से वंचित हो गए."
सरकार का तर्क है कि स्कूलों को मर्ज करने से शिक्षा की गुणवत्ता बेहतर और संसाधनों का प्रबंधन बेहतर होगा, लेकिन जब हम पटना से करीब 80 किलोमीटर दूर मुजफ्फरपुर पहुंचे तो हमें एक अलग ही तस्वीर दिखाई दी.
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एक जर्जर कमरे में पहली से पांचवीं तक का प्राथमिक विद्यालय बहलखाना चल रहा है. यहां ना पीने के पानी की व्यवस्था थी और ना ही कोई टायलेट.
सरकार ने इस जर्जर स्कूल में पास के ही एक प्राथमिक विद्यालय 'कल्याणी बाड़ा उर्दू' को भी मर्ज कर दिया, जिसके बाद अब स्कूल में बच्चों की संख्या करीब 50 और टीचरों की संख्या 9 हो गई है.
जब जर्जर भवन के अंदर झांककर देखा गया तो वहां करीब दस बच्चे और आठ टीचर बैठे हुए दिखाई दिए. टीचरों से जब स्कूल की बदहाली पर बात करने की कोशिश की तो वे भड़क गए.
बदहाली के सवाल पर मुजफ्फरपुर के ज़िला शिक्षा अधिकारी अरविंद सिन्हा ने बताया कि ज़िले में 3368 स्कूल हैं, जिसमें 100 स्कूल ऐसे हैं जिनकी व्यवस्था अच्छी नहीं है.
वे कहते हैं, "स्कूलों के सुधार के लिए टेंडर निकाले हुए हैं. दो से तीन महीनों में सुधार की गुंजाइश है. हम आरटीई के तहत प्राइवेट स्कूलों में भी बच्चों का नामांकन करवा रहे हैं."
ट्रांसफर की तरह स्कूल मर्ज होने के बाद एक बड़ी परेशानी दूरी की भी है. मुजफ्फरपुर के स्थानीय निवासी नागेंद्र महतो कहते हैं, "प्राथमिक विद्यालय कल्याणी बाड़ा उर्दू को मर्ज करने के बाद वहां के बच्चे इस स्कूल में नहीं आ पाते हैं. इसके अलावा यहां पढ़ाई भी नहीं होती है. इस सरकारी स्कूल में कोई भी अपने बच्चों को भेजना नहीं चाहता."
मर्जर के सवाल पर प्रो. विद्यार्थी विकास कहते हैं, "पहली क्लास में पढ़ने वाले बच्चे मुश्किल से छह साल के होंगे. अगर उन्हें घर से दूर जाना पड़ेगा तो वे नहीं जाएंगे. इन स्कूलों में ज्यादातर गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं और उनके पास इतने संसाधन नहीं हैं कि वे अपने बच्चों पर इतना ध्यान दे पाएं."
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बिहार में 8,053 पंचायत हैं. साल 2019 में बिहार सरकार ने हर पंचायत में एक उच्चतर माध्यमिक यानी 12वीं तक विद्यालय खोलने का फैसला लिया था.
यह एक बड़ा लक्ष्य था, जिसे सरकार ने इस आसानी से हासिल कर लिया. इसके पीछे बिहार सरकार की वह नीति है, जिसमें पहले से मौजूद प्राइमरी और सेकेंडरी स्कूलों को बदलकर हाई स्कूल कर दिया गया.
विद्यार्थी विकास कहते हैं, "राज्य सरकार ने पांचवीं तक के स्कूल को उत्क्रमित मध्य विद्यालय (क्लास आठ) और कक्षा आठ तक के स्कूल को उत्क्रमित हाई स्कूल में बदल दिया. सरकार ने ज्यादातर जगहों पर स्कूलों को बिना इंफ्रास्ट्रक्चर ठीक किए अपग्रेड कर दिया, जिससे स्कूलों पर पहले से ज्यादा भार पड़ा."
वहीं नवल किशोर चौधरी का कहना है, "पिछले दस सालों में इंफ्रास्ट्रक्चर की नज़र से कुछ सुधार जरूर हुआ है. सरकार पहले की तुलना में पैसे भी ज्यादा खर्च कर रही है लेकिन अभी भी काफी कुछ होना बाकी है."
स्कूल अपग्रेड करने के क्रम में रसलपुर के उस विद्यालय को भी उत्क्रमित विद्यालय में तब्दील कर दिया गया, जहां सैदपुर का प्राथमिक विद्यालय ट्रांसफर किया गया था.
उत्क्रमित मध्य विद्यालय रसलपुर के प्रधानाध्यापक सुरेश कुमार दास बताते हैं, "मेरे यहां तीन स्कूल चलते हैं. पहला मेरा मूल स्कूल है जो पहली से आठवीं का है. दूसरा वह सैदपुर का प्राथमिक स्कूल है जिसे हमारे यहां ट्रांसफर किया गया है और तीसरा सरकार ने इसी स्कूल को अपग्रेड कर उत्क्रमित उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बना दिया है."
वे कहते हैं, "प्राथमिक विद्यालय में करीब 120 बच्चे हैं. पहली से आठवीं तक के स्कूल में 250 बच्चे हैं और नौंवी से बारहवीं तक चलने वाले स्कूल में करीब 350 बच्चे हैं. एक ही कैंपस में सरकार ने इतने बच्चों की व्यवस्था कर दी है."
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ऐसी ही हाल हमें कई और स्कूलों में भी दिखाई दिया, जहां अपग्रेड होने के बाद बच्चों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन टीचर और कमरों की संख्या में इजाफ़ा नहीं हुआ.
सरकार का कहना है कि वह इंफ्रास्ट्रक्चर के साथ-साथ टीचरों की संख्या बढ़ाने पर काम कर रही है. यू-डीआईएसई के मुताबिक साल 2023-24 में बिहार में सरकारी टीचरों की संख्या करीब 4 लाख 86 हज़ार थी, जो एक साल बाद बढ़कर 5 लाख 22 हजार हो गई है.
एक्सपर्ट्स का मानना है कि सिर्फ आठवीं तक के स्कूलों को बाहरवीं तक करने से काम नहीं चलेगा, बल्कि इन स्कूलों में सरकार को गणित और विज्ञान पढ़ाने वाले शिक्षकों की भर्ती भी करनी होगी.
एक फील्ड सर्वे की तस्वीरसाल 2016 से 2018 के बीच पटना के ए एन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ने बिहार में शिक्षा प्रोत्साहन योजना को लेकर एक स्टडी की थी.
प्रोजेक्ट के दौरान जुटाए गए आंकड़े काफी हैरान करने वाले थे.
विद्यार्थी विकास कहते हैं, "इस दौरान कुछ ज़रूरी आंकड़े इकट्ठा किए गए जिनका विस्तृत विश्लेषण किया गया. यह सर्वे बिहार के 38 ज़िलों में किया गया और हर ज़िले में दो ब्लॉक चुने गए- एक उच्च साक्षरता दर वाला और एक निम्न साक्षरता दर वाला. इसके बाद हर ब्लॉक में दस स्कूल चुने गए."
वे कहते हैं, "सर्वे में पाया गया कि साइकिल और पोशाक योजना बच्चों तक ठीक से पहुंच रही थी, लेकिन एक बड़ा सवाल बच्चों की स्कूल में वास्तविक उपस्थिति को लेकर सामने आया. 2018-19 की यह स्थिति यह थी कि इंटर के केवल 4 प्रतिशत बच्चे ही नियमित रूप से स्कूल पहुँच रहे थे."
"वहीं हाई स्कूल में यह संख्या करीब 20 प्रतिशत थी. क्लास छह से आठ तक के 36 प्रतिशत और क्लास एक से पांच तक के 41 प्रतिशत बच्चे ही नामांकन की तुलना में फिज़िकली स्कूल आते थे."
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यू-डीआईएसई 2024-25 के आंकड़े अगर देखें तो पता चलता है कि बिहार में उच्च प्राथमिक शिक्षा तक ड्रॉपआउट रेट भी बढ़ रहा है.
उदाहरण के लिए अगर 10 हजार बच्चे पहली क्लास में एडमिशन लेते हैं, तो पांचवीं तक आते-आते देश में औसतन 190 बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, वहीं बिहार में यह संख्या 290 पहुंच जाती है.
छठी से आठवीं क्लास यानी उच्च प्राथमिक शिक्षा में यह अंतर करीब दोगुना हो जाता है, लेकिन नौवीं दसवीं में यह तस्वीर पलट जाती है. देश में औसतन जहां 1410 बच्चे स्कूल छोड़ते हैं, वहीं बिहार में यह घटकर 690 रह जाती है.
विद्यार्थी विकास का कहना है, "जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर ऊंचा होता है, हाईस्कूल और इंटर में लड़कियों की संख्या कम होती जाती है, जो चिंताजनक है."
बिहार सरकार दावा करती है कि राज्य की शिक्षा व्यवस्था में सुधार हो रहा है, लेकिन ज़मीनी तस्वीर अभी भी चुनौतियों से घिरी है.
मुस्कान जैसी बच्चियां रोज़ नाव पकड़कर स्कूल तो पहुंच जाती हैं, मगर बड़ा सवाल यही है कि क्या बिहार की शिक्षा व्यवस्था भी कभी इन मुश्किल लहरों को सचमुच पार कर पाएगी?
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