(ये कहानी पहली बार 2021 में प्रकाशित हुई थी. 10 अक्तूबर को ही पाकिस्तानी परमाणु वैज्ञानिक अब्दुल क़दीर ख़ान की मौत हुई थी. इस कारण हम इस कहानी को दोबारा प्रकाशित कर रहे हैं)
ये बात 11 दिसंबर साल 2003 की है. अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआईए और ब्रितानी ख़ुफ़िया एजेंसी एमआई-6 के अधिकारी लीबिया में एक सीक्रेट प्लेन में सवार हो रहे थे, उन्हें आधा दर्जन भूरे लिफाफों का बंडल दिया गया.
ये टीम लीबिया के अधिकारियों के साथ बातचीत कर एक गुप्त ऑपरेशन के आख़िरी पड़ाव पर पहुँच गई थी.
जैसे ही अधिकारियों ने लिफाफा खोला, उन्होंने पाया कि जो सबूत चाहिए थे, दस्तावेज़ में वही सबूत थे- इस लिफ़ाफ़े के भीतर परमाणु हथियार का एक ब्लूप्रिंट था.
ये डिज़ाइन बनाने और लीबिया के परमाणु योजना के लिए कई तकनीक मुहैया कराने वाले शख़्स का नाम था, अब्दुल क़दीर ख़ान.
10 अक्तूबर 2021 को 85 साल की उम्र में ख़ान का निधन हो गया.
बीते पाँच दशकों में वैश्विक सुरक्षा की दुनिया में अब्दुल क़दीर ख़ान बेहद महत्वपूर्ण नाम रहे.
उनकी कहानी दुनिया की सबसे ख़तरनाक तकनीक की लड़ाई के केंद्र में रही. जिसे लड़ने वाले दो पक्ष थे- एक जिनके पास ये तकनीक थी और दूसरे जो ये तकनीक पाना चाहते थे.
पूर्व सीआईए डायरेक्टर जॉर्ज टेनेट ख़ान को उतना ही 'ख़तरनाक बताते थे, जितना कि ओसामा बिन लादेन'.
ये एक बड़ी तुलना है, क्योंकि बिन लादेन अमेरिका में 11 सितंबर, 2001 को हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर धमाके का मास्टमाइंट था.
वास्तव में पश्चिमी जासूसों की दुनिया में अब्दुल क़दीर ख़ान की गिनती सबसे ख़तरनाक़ लोगों में की जाती थी, लेकिन उन्हें अपने देश में हीरो माना जाता रहा.
ये उनके व्यक्तित्व की जटिलता को तो दिखाता ही है लेकिन साथ ही परमाणु हथियारों को लेकर दुनिया का नज़रिया भी बताता है.
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1970 के दशक में ख़ान नीदरलैड्स में काम कर रहे थे. वह यूरोप एक परमाणु जासूस की तरह तो नहीं आए थे. लेकिन वह बन ज़रूर गए.
ये वो वक़्त था, जब भारत से मिली 1971 की हार के बाद पाकिस्तान ने बम बनाने का काम तेज़ कर दिया था और वह भारत की परमाणु प्रगति से डरा हुआ था.
ख़ान यूरोप में यूरेनियम संवर्धित करने के लिए सेंट्रीफ्यूज बनाने वाली एक कंपनी में काम कर रहे थे.
संवर्धित यूरेनियम का इस्तेमाल न्यूक्लियर पावर बनाने में किया जाता है और अगर ये ज़्यादा संवर्धित हो तो बम बनाने में भी इस्तेमाल होता है.
ख़ान ने इस कंपनी के सबसे एडवांस सेंट्रीफ्यूज़ का डिज़ाइन कॉपी कर लिया और स्वदेश लौट आए.
उन्होंने एक गुप्त नेटवर्क बनाया, जिसमें बड़ी तादाद में यूरोपीय बिज़नेसमैन शामिल थे. ये लोग ही ज़रूरी तकनीक की सप्लाई कराते थे.
क्यों पश्चिमी देशों के 'दुश्मन' थे ख़ानख़ान को पाकिस्तान के परमाणु बम का 'जनक' माना जाता है, लेकिन वास्तव में वह इसके पीछे की टीम के एक अहम सदस्य थे.
उन्होंने बड़ी सावधानी से अपनी ख़ुद की कहानी विकसित की, जिसने उन्हें एक ऐसा 'राष्ट्रीय नायक' बना दिया, जिसने भारत के ख़तरे के ख़िलाफ़ पाकिस्तान की सुरक्षा सुनिश्चित की.
लेकिन परमाणु बम बनाने के इतर की गई कुछ चीज़ों ने ख़ान को इतना महत्वपूर्ण बनाया. उन्होंने अपने नेटवर्क को इंपोर्ट के बाद एक्सपोर्ट में बदल दिया.
वह कई देशों से डील करने वाले वैश्विक चेहरा बन गए. पश्चिमी देश इन देशों को 'रॉग स्टेट' मानते हैं यानी ऐसे देश जिनकी प्रवृत्ति और नीयत साफ़ ना हो.
ईरान के नतांज़ परमाणु संयंत्र के डिज़ाइन और मटीरियल का एक बड़ा हिस्सा ख़ान की ओर से मुहैया कराया गया था.
एक बैठक में ख़ान के प्रतिनिधियों ने मूल रूप से एक मैन्यु के साथ मूल्य-सूची पेश की थी, जिससे ईरान ऑर्डर दे सकता था.
ख़ान ने दर्जनों दौरे उत्तर कोरिया के भी किए. माना जाता है कि यहाँ मिसाइल तकनीक में निपुणता के बदले परमाणु तकनीक का सौदा हुआ था.
इन डील में कई रहस्यों में से जो एक रहस्य हमेशा बना रहा, वह ये कि क्या ख़ान ये डील ख़ुद कर रहे थे या अपनी सरकार के आदेश पर कर रहे थे.
ख़ासकर उत्तर कोरिया की डील, सभी संकेत इस ओर इशारा करते हैं कि इस समझौते की ना सिर्फ़ सरकार को ख़बर थी बल्कि वह पूरी तरह शामिल भी थी.
कभी-कभी ये भी कहा गया कि ख़ान सिर्फ़ पैसों के पीछे थे. लेकिन ये समझना इतना आसान नहीं है.
अपनी सरकार के साथ क़रीब से काम करके के साथ-साथ वह चाहते थे कि परमाणु हथियारों से पश्चिमी देशों का एकक्षत्र राज्य ख़त्म किया जाए.
वह कहते थे कि क्यों कुछ ही देशों को ऐसे हथियार रखने की अनुमति हो और बाक़ी देशों को नही? वह इसे पश्चिमी देशों का पाखंड कहते थे.
उन्होंने कहा था, ''मैं बेवकूफ़ नहीं हूँ. वो मुझे नापसंद करते हैं. मुझ पर बेबुनियाद और ग़लत आरोप लगाते हैं, क्योंकि मैंने उनकी रणनीतिक योजनाएँ ख़राब कर दी हैं.''
ख़ान पर किताब लिखने के दौरान जब मैं उनके नेटवर्क के कुछ लोगों से मिला, तो मुझे लगा कि ये लोग पैसों के लिए काम कर रहे हैं.
1990 के दशक में लीबिया डील के बदले उन्हें इनाम तो मिला, लेकिन ये उनके पतन की शुरुआत भी थी.
लीबिया की डील और पतन की शुरुआतब्रिटेन के एमआई 6 और सीआईए ने ख़ान को ट्रैक करना शुरू कर दिया. उनकी यात्रा पर नज़र रखी जाने लगी, फ़ोन कॉल को इंटरसेप्ट किया जाने लगा.
उनके नेटवर्क में पैठ बना ली गई और लाखों डॉलर दे कर नेटवर्क के सदस्यों को एजेंट बना लिया गया.
11 सितंबर, 2001 को हुए हमले के बाद ये डर भी बढ़ गया कि अगर 'आतंकवादियों' के हाथ और हथियार लग गए तो हमले बढ़ सकते है.
ऐसे में पाकिस्तान को ख़ान के खिलाफ़ कार्रवाई करने के लिए कहा जाने लगे.
मार्च, 2003 में अमेरिका और ब्रिटेन ने विनाशकारी हथियारों के नाम पर इराक़ पर हमला बोला. हालाँकि वहाँ ऐसा कुछ नहीं मिला.
लीबिया के तत्कालीन शासक कर्नल गद्दाफ़ी ने तय किया कि वह अपनी परमाणु योजनाओं से छुटकारा चाहते हैं.
इसके लिए उन्होंने सीआईए और एमआई-6 की मदद की और उनका एक सीक्रेट दौरा कराया. भूरे लिफ़ाफे में सबूत दिए गए. इसके तुरंत बाद डील की जानकारी सार्वजनिक की गई.
इससे अमेरिका को ख़ान के ख़िलाफ़ पक्के सबूत मिल गए और उसने पाकिस्तान पर ख़ान के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का दबाव बनाया.
इसके बाद ख़ान को नज़रबंद कर दिया गया और यहाँ तक कि उनको टीवी पर कबूलनामा करने पर मजबूर किया गया.
उन्होंने इसके बाद की अपनी पूरी ज़िंदगी एक अजीब सी अवस्था में काटी, जहाँ वो ना तो आज़ाद थे और ना ही क़ैदी.
उन्होंने क्या किया और क्यों किया, इसकी पूरी कहानी शायद ही कभी सामने आ पाए.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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