नई दिल्लीः तमिलनाडु के राज्यपाल के रवैये पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला चर्चा का केंद्र बना हुआ है। लेकिन यह पहला मामला नहीं है जब राज्यपाल के फैसले या उनकी नियुक्ति को लेकर बहस हो रही है। राज्यपाल की शक्ति को लेकर जुलाई 1959 से टकराव शुरू हो गया था। उस दौरान गवर्नर की रिपोर्ट पर केरल की नंबूदरीपाद सरकार को बर्खास्त कर दिया गया था। अनुच्छेद 356 का इस्तेमालबहरहाल, केरल में 31 जुलाई 1959 को कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल किया गया था, तब राजेंद्र प्रसाद राष्ट्रपति थे। वे संविधान सभा के अध्यक्ष भी रहे थे और उन्होंने 3 और 4 अगस्त 1949 को सत्र की अध्यक्षता की थी। उस दौरान अंबेडकर ने अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग की आशंका जाहिर की थी।वह पहला मामला था जब से राज्यपालों की नियुक्तियां राजनीतिक होने लगीं, टकराव बढ़ने लगा। निर्णय, अधिकार और शक्तियां-कई मु्द्दों पर दोनों में टकराव होता रहा है। हाल में इसका सबसे बड़े उदाहरण पश्चिम बंगाल और दिल्ली रहे। बंगाल की ममता बनर्जी सरकार की पहले जगदीप धनखड़ और सीवी आनंद बोस के साथ कभी पटरी नहीं बैठती। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार का उपराज्यपाल के साथ विवाद तो हमेशा सुर्खियों में रहा है। नंबूदरीपाद की सरकार से पहले अप्रैल 1952 में पंजाब और पूर्वी पटियाला राज्य संघ के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने वाले ज्ञान सिंह रारेवाला को भी बर्खास्त किया गया था। रारेवाला स्वतंत्र भारत में एकमात्र गैर-कांग्रेसी राज्य सरकार का नेतृत्व कर रहे थे। उस दौरान 5 मार्च 1953 को संविधान के अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल करते हुए राज्य विधानसभा को भंग कर दिया गया। विवाद की मुख्य वजह क्या होती है
- चूंकि की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है इसलिए वह राज्य में केंद्र के निर्देशों पर कार्य करता है। यदि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार नहीं है तो राज्य के कामकाज के काफी समस्याएं आ सकती हैं।
- कई मामलों में एक विशेष राजनीतिक विचारधारा के साथ जाने-माने राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को ही सरकार द्वारा राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है। इसकी वजह से कई बार राज्यपालों पर पक्षपात का आरोप लगा।
- एक बार राजस्थान के राज्यपाल पर आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का आरोप लगाया गया था। सत्ताधारी दल को समर्थन प्रदान करना किसी भी संवैधानिक पद पर काबिज़ व्यक्ति से अपेक्षित नहीं होता है, लेकिन फिर भी समय-समय पर ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं।
- राज्य में चुनावों के बाद सरकार बनाने के लिये सबसे बड़ी पार्टी या गठबंधन को आमंत्रित करने को लेकर राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का अक्सर किसी विशेष राजनीतिक दल के पक्ष में दुरुपयोग किया गया है।
- कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही राज्यपाल को पद से हटाना भी हाल के दिनों में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा है।
- राज्यपाल को इस आधार पर नहीं हटाया जा सकता कि वह केंद्र की सत्ता में मौजूद दल की नीतियों और विचारधाराओं के साथ तालमेल नहीं रखता।
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